रुद्र अर्थात भूतभावन शिव का अभिषेक। शिव और रुद्र परस्पर एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही ‘रुद्र’ कहा जाता है, क्योंकि रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानी भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं।
हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारी कुंडली से पातक कर्म एवं महापातक भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।
रुद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका अर्थात सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रुद्र की आत्मा हैं। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिए तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।
परंतु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में मंत्र, गोदुग्ध या अन्य दूध मिलाकर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सबको मिलाकर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है। इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत ही उत्तम फल देता है किंतु यदि पारद के शिवलिंग का अभिषेक किया जाए तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है। रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है।
वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुराणों में तो इससे संबंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में कहा गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काटकर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।
भस्मासुर ने शिवलिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओं से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया। कालसर्प योग, गृहक्लेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यों की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके अभीष्ट सिद्धि के लिए फलदायक है।
ज्योतिर्लिंग क्षेत्र एवं तीर्थस्थान तथा शिवरात्रि प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वों में शिववास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है। वस्तुत: शिवलिंग का अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका कृपापात्र बना देता है और उनकी सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं। अत: हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से मनुष्य के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं।
स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है कि जब हम अभिषेक करते हैं तो स्वयं महादेव साक्षात उस अभिषेक को ग्रहण करते हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु, वैभव, सुख नहीं है, जो हमें रुद्राभिषेक करने या करवाने से प्राप्त नहीं हो सकता है।
*सावन में शिवजी सोमवार और शिवलिंग का महत्त्व*||
क्यों है सावन में शिवजी सोमवार और शिवलिंग का महत्त्व सावन मास, सोमवार तथा शिवलिंग ये तीनों भगवान शिवजी को अत्यन्त प्रिय है। जुलाई अथवा अगस्त महीना में सावन मास आरम्भ होता है। इस महीना में अनेक महत्त्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं। जैसे — ‘हरियाली तीज’, ‘रक्षा बन्धन’, ‘नाग पंचमी’ इत्यादि।
इस महीना में भगवान शिव की आराधना का विशेष महत्त्व है। इस माह के प्रथम सोमवार से सोमवारी व्रत प्रारम्भ हो जाता है। इस दिन स्त्री, पुरुष तथा विशेषतौर से कुंवारी युवतियां भगवान शिव जी को प्रसन्न करने के लिए व्रत रखती है। भक्त लोग सावन मास में आने वाले सभी सोमवार के दिन व्रत रखती है।
श्रद्धालु इस पूरे मास शिवजी के निमित्त व्रत और प्रतिदिन उनकी विशेष पूजा आराधना करते हैं। शिवजी की पूजा में गंगाजल के उपयोग को विशिष्ट माना जाता है। शिवजी की पूजा आराधना करते समय उनके पूरे परिवार अर्थात् शिवलिंग, माता पार्वती, कार्तिकेयजी, गणेशजी और उनके वाहन नन्दी की संयुक्त रूप से पूजा की जानी चाहिए।
*क्यों करते है शिवलिंग की पूजा ?*
वस्तुतः व्यवहार में लिंग का अर्थ शिश्न या योनि के रूप में किया जाता है परन्तु यह अर्थ केवल अज्ञानतावश ही किया जाता है। संस्कृत में तीन लिंग पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग होता है। वस्तुतः यहाँ पर लिंग शब्द का अर्थ प्रतीक के रूप में है। अर्थात लिंग पुरुष,स्त्री था नपुंसकता का प्रतीक है। उसी प्रकार शिवलिंग में लिंग शब्द शिवत्व का प्रतीक है।
*न्याय दर्शन में भी कहा गया है —*
*इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति -न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०*
अर्थात जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख जानने आदि गुण विदयमान हो, वह जीवात्मा है और, ये सभी राग-द्वेष आदि जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण ही तो है ।
भगवान शिव स्वयं शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष है इसलिए शिवलिंग तो शून्याकाश आदि का ही प्रतीक है न की अज्ञानी पुरुष का लिंग। स्कन्दपुराण के अनुसार आकाश स्वयं लिंग ही है, पृथ्वी उसका पृष्ठ या आधार है तथा ब्रह्माण्ड का हर पदार्थ अनन्त शून्य से उत्पन्न होकर अंततः उसी में लय हो जाने के कारण इसे लिंग कहा है| यही कारण है की प्राचीन काल से ही शिवलिंग की पूजा अनवरत अविरल रूप से चली आ रही है। अतः स्पष्ट है की शिव ही शिवलिंग है और शिवलिंग ही शिव हैं।
*सोमवार और शिव जी का सम्बन्ध*
सोमवार दिन का प्रतिनिधि ग्रह चन्द्रमा है। चन्द्रमा मन का कारक है ( चंद्रमा मनसो जात: )। मन के नियंत्रण और नियमण में उसका (चंद्रमा का) महत्त्वपूर्ण योगदान है। चन्द्रमा भगवान शिव जी के मस्तक पर विराजमान है। भगवान शिव स्वयं साधक व भक्त के चंद्रमा अर्थात मन को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार भक्त के मन को वश में तथा एकाग्रचित कर अज्ञानता के भाव सागर से बाहर निकालते है।
महादेव की कृपा से भक्त त्रिविध ताप आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक ( 1 आध्यात्मिक :- जो आत्मिक देह में अविद्या,राग, द्वेष, मुर्खता 2. अधिभौतिक :- शत्रु या व्याघ्र से दुःख 3 अधिदैविक :- अतिवृष्टि, अतिशीत, अति उष्णता आदि से मन और इन्द्रियों को दुःख पहुंचना ) से शीघ्र ही मुक्ति पाते है। यही कारण है की सोमवार दिन शिवजी के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
*क्यों है शिव जी को सावन मास प्रिय ?*
सावन मास में सबसे अधिक वर्षा होती है जो शिव जी के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करती है। महादेव ने सावन मास की महिमा बताते हुए कहते है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांये चन्द्र और अग्नि मध्य नेत्र है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है जो उष्मा देता है जबकि चंद्रमा ठंडा है जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से खूब बरसात होती है। जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोले को ठंडक व सुकून मिलता है। प्रजनन की दृष्टि से भी यह मास बहुत ही अनुकूल है। इसी कारण शिव को सावन प्रिय हैं।
*शिव पूजन के लिए सामग्री*
शिवजी की पूजा में मुख्य रूप से निम्न सामग्री का प्रयोग किया जाता है। गंगाजल, जल, दूध, दही, घी, शहद,चीनी, पंचामृत, कलावा, जनेऊ, वस्त्र, चन्दन, रोली, चावल, बिल्वपत्र, दूर्वा, फूल,फल, विजिया, आक, धूतूरा, कमल−गट्टा, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, पंचमेवा, धूप, दीप तथा नैवेद्य का इस्तेमाल किया जाता है।
*सोमवारी व्रत नियम तथा महत्त्व*
‘शिवपुराण’ के अनुसार भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इस व्रत में फलाहार या पारण का कोई विशेष नियम नहीं है। वैसे दिन−रात में केवल एक ही बार खाना फलदायक होता है। सोमवार के व्रत में शिव−पार्वती गणेश तथा नंदी की पूजा करना चाहिए। दिन शिव मंदिर में सुबह से ही श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगती है तथा बम-बम भोले,हर हर महादेव से मंदिर गुंजायमान होने लगता हैं।
सावन मास में शिव जी को बेल पत्र ( बिल्वपत्र ) जाने अनजाने में किये गए पाप का शीघ्र ही नाश हो जाता है। अखंड बिल्वपत्र चढाने का विशेष महत्त्व है। कहा जाता है कि अखण्ड बेलपत्र चढाने से सभी बुरे कर्मों से मुक्ति तथा अनेक प्रकार के कष्ट दूर हो जाते है।
सावन में शिवालय अर्थात शिव मंदिर के अभाव में पार्थिव शिवलिंग अर्थात मिट्टी से शिवलिंग स्थापित कर उन पर विधिवत पूजा करने का विशेष महत्व है। इसलिए प्रतिदिन या प्रत्येक सोमवार को शिव पूजा या पार्थिव शिवलिंग की पूजा ( मिट्टी से बनी हुई शिवलिंग ) अवश्य करनी चाहिए। इस मास में यथासम्भव रुद्राभिषेक पूजन किया जाए तो शुभ फल की प्राप्ति होती है। इस व्रत में सावन माहात्म्य और शिव महापुराण की कथा सुनने का विशेष महत्व है।
ऐसी मान्यता है कि पवित्र गंगा नदी से सीधे जल लेकर जलाभिषेक करने से शिव जी शीघ्र प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। इसी कारण श्रद्धालु कावड़िए के रूप में पवित्र नदियों से जल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। श्रीराम जी ने भी भगवान शिव जी को कांवड चढ़ाई थी।
सावन मास में ही भगवान शिव जी इस पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत र्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। यह भी मान्यता है कि शिवजी प्रत्येक वर्ष सावन माह में अपनी ससुराल आते हैं। इसी सावन मास में समुद्र मंथन भी किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो विष निकला था उस विष को पीकर तथा कंठ में धारण कर सृष्टि की रक्षा किये थे। यही कारण है कि विषपान से शिवजी का कंठ नीला हो गया है। इसी कारण ‘नीलकंठ” के नाम से जाने जाते हैं। देवी-देवताओं ने शिवजी के विषपान के प्रभाव को कम करने के लिए जल अर्पित किये थे। इसी कारण शिवलिंग पर जल चढ़ाने का खास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में भोलेनाथ को जल चढ़ाने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
*शिव पूजन से लाभ*
सोमवारी व्रत सावन महीना के प्रथम सोमवार से शुरू हो जाता है। प्रत्येक सोमवार को शिवजी, पार्वतीजी तथा गणेशजी की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि सावन में शिवजी की आराधना तथा सोमवार व्रत करने से शिव जी शीघ्र ही प्रसंन्न हो जाते है। प्रसंन्न होकर भक्त के इच्छानुकूल मनोकामनाएं पूरा करते है। व्रत और शिवजी की पूजा करने से पुत्र की इच्छा करने वाले को पुत्र, विद्यार्थी को विद्या, धनार्थी को धन, मोक्ष चाहने वालो को मोक्ष तथा कुंवारी कन्या को मनोनुकूल पति की प्राप्ति होती है।
सावन मास में व्रत का विशेष महत्व है। ऐसी मान्यता है कि कुंवारी कन्या यदि इस पूरे महीने व्रत रखती हैं तो उन्हें मनपसंद जीवनसाथी मिलता है। एक प्रचलित कथा जो शिव जी और पार्वती से जुड़ी है। पिता दक्ष द्वारा अपने पति का अपमान होता देख सती ने आत्मदाह कर लिया था। सती ने पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया और शिव को अपना बनाने के लिए सावन मास के सभी सोमवार का व्रत रखा। परिणामस्वरूप उन्हें पति रूप में भगवान शिव की प्राप्ति हुई।
ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय